tumko paya hai zamane se kinara karke lyrics - तुमको पाया है जमाने से किनारा करके-

 तुम्हे क्या बताऊं ए राजदान
 तेरे सामने मेरा हाल है
 तेरी एक निगाह की बात है
 मेरी जिंदगी का सवाल है

तुमको पाया है जमाने से किनारा करके
तुम बदल देते हो किस्मत को इशारा करके

अपनी निस्बत पे कोई रंग न चढ़ने देंगे
फूल तो फूल है पत्ता न उखड़ने देंगे
वो मेरा दामने हस्ती न उजड़ने देंगे
मेरे बाबा मेरा कुछ ना बिगड़ने देंगे

ऐसा नवाजा आपने बाबा की कसम
सब मेरे मुकद्दर की तरफ देख रहे हैं
मैं तो यहां सरकार की महफिल में मगन हूं
और सरकार मेरे घर की तरफ देख रहे हैं

तुमको पाया है जमाने से किनारा करके
तुम बदल देते हो किस्मत को इशारा करके
माल ओ दौलत की तमन्ना ना मुझे शोहरत की
कुछ भी दे दे तेरी चौखट का उतारा करके

लाज रख लो मेरी मैं आपका कहलाता हूं
आपके भक्तों में सरकार गिना जाता हूं
जब कभी मंजिलें तन्हाई से घबराता हूं में तो बाबा तेरे दर पे चला आता हूं


उनके टुकड़ों पर पलते हैं हजारों लाखों
मुझको भी फक्र है मैं आपका दिया खाता हूं
अरे जमाने से कह कर के सुकू पाता हूं पकड़ दामन  मैं तेरा
मैं तेरा  पागल कहलाता हूं 

छानकर खाक जमाने की यही सोचा है ...मेरे बाबा
उम्र काटूँ  तेरे टुकड़ों पर गुजारा करके
क्यों किसी गैर के दर पर मैं झुकाऊं सर को
मुझको तो आप  ने भेजा है पहले से अपना  करके

 यूं तो क्या क्या नजर नहीं आता
 कोई तुमसा नजर नहीं आता
 झोलियां सबकी भर दी जाती हैं
 देने वाला नजर नहीं आता

 गम सभी राहतों तस्कीन में ढल जाते हैं
जब करम होता है हालात बदल जाते हैं
रख ही लेते हैं भरम उनके करम के सदके
जब किसी बात पर दीवाने मचल जाते हैं

ना तो हंसने में मजा है ना मज़ा रोने में
छुप गए  तुम कहां ये हाल हमारा करके
मैंने पाई है "शकील" सारे जमाने की खुशी
इनकी चौखट की गुलामी को गवारा करके 


बे  सहारों को दिया तूने सहारा दाता
बस तेरी एक नजर पर हो गुजारा दाता
नाम लेकर तेरा जिस ने पुकारा दाता



TERI MEHRBANI KA HAI BOJH ITNA - तेरी मेहरबानी का है बोज इतना,

 तेरी मेहरबानी का है बोज इतना,
की मैं तो उठाने के काबिल नही हूँ ।

मैं आ तो गया हूँ मगर जानता हूँ,
तेरे दर पे आने के काबिल नही हूँ ॥

ज़माने की चाहत में खुद को भुलाया,
तेरा नाम हरगिज़ जुबा पे ना लाया ।
गुन्हेगार हूँ मैं खतावार हूँ मैं,
तुझे मुहं दिखने के काबिल नही हूँ ॥

तुम्ही ने अदा की मुझे जिंदगानी,
मगर तेरी महिमा मैंने ना जानी ।
कर्जदार तेरी दया का हूँ इतना,
कि कर्जा चुकाने के काबिल नही हूँ ॥

ये माना कि दाता है तू कुल जहान का,
मगर झोली आगे फैला दूँ मैं कैसे ।
जो पहले दिया था वो कुछ कम नही है,
उसी को निभाने के काबिल नही हूँ ॥

तमन्ना यही है की सर को झुका दू,
तेरा दीद दिल में मैं एक बार पालू ।
सिवा दिल के टुकड़ो के ऐ मेरे दाता,
कुछ भी चडाने के काबिल नही हूँ



अगर तुम बेनक़ाब आओ agar tum benqab aao lyric

 अगर तुम बेनक़ाब आओ
क़यामत की घड़ी होगी
अगर तुम बेनकाब आओ
क़यामत की घड़ी होगी।

तुम्हे अपनी पड़ी होगी
हमें अपनी पड़ी होगी
अगर तुम बेनक़ाब आओ
क़यामत की घड़ी होगी।

सरे महफ़िल कभी आकर
जो तुम जलवे बिखेरोगे
निगाहों की छुरी जब तुम
हुमारे दिल पे फरोगे।

ना पूछो हाल क्या होगा
ना पूछो हाल क्या होगा
लबों पे जान खड़ी होगी।

अगर तुम बेनक़ाब आओ
क़यामत की घड़ी होगी।

मोहब्बत से मोहरत से
तुम्हे रब ने बनाया है
तेरी नाज़ुक जवानी को
नज़ाकत से सजाया है।

बड़ी आबिद तस्सली से
बड़ी आबिद तस्सली से
तेरी मूरत घड़ी होगी।

अगर तुम बेनक़ाब आओ
क़यामत की घड़ी होगी।

चमकते चाँद चेहरे से
जो तुम ज़ूलफें हटाओगे
सामने बैठ कर मेरे
अगर तुम मुस्कुराओगे।

करेगा दिल तुम्हे सजदे
करेगा दिल तुम्हे सजदे
नज़र तुमसे लड़ी होगी।

अगर तुम बेनक़ाब आओ
क़यामत की घड़ी होगी
अगर तुम बेनक़ाब आओ
क़यामत की घड़ी होगी।



GANG KE DOHE कवि गंग के दोहे

 

वृद्धावस्था में हरी नाम (कवित)

बाँभन को जनम जनेऊ मेलि जानी बूझि, जीभ ही बिगारिबे कौ जाच्यो जन जन में।
कहै कवि गंग कहा कीजै जौ न जाने जात, बाउ ग्यान देखौ जु बुढ़ाई ध्यान धन में।
काम क्रोध लोभ मोह तिनहि के बस परयो, तिहुँ पुर नायक बिसारियो तिहुँ पन में।
कालिमा के चलत कलापति ज्यों चेत होत, केस आए सेत ह्वै न केसौ आए मन में।।

 

बुद्धि विवेक विचार बढ़ै (सवैया)

ज्ञान बड़े गुणवान की संगत ध्यान बड़े तपसी संग किन्हा।
मोह बढ़े परिवार की संगत काम बढे तिरिया संग किन्हा।
क्रोध बढे नर मूढ़ की संगत लोभ बढे धन में चित् दिन्हा।
बुद्धि विवेक विचार बढे कवि गंग कहे सजन संग किन्हा।।

शब्दार्थ:-
यह इस संसार का सार्वभौमिक परम सत्य है कि व्यक्ति जैसी संगत में रहता है वह वैसा ही बन जाता है संस्कारी व्यक्ति के संग में रहने पर हमारे अंदर भी शुभ संस्कारों का समावेश होने लगता है अगर ज्ञान चाहिए तो गुणवान व्यक्तियों का संग करो ध्यान एकाग्रता चाहिए तो तपस्वी व्यक्ति का संग करो ज्यादा परिवार के बीच रहने पर मोह की वृद्धि होती है स्त्री के नजदीक ज्यादा रहने से काम में वृद्धि होती है जैसे ज्ञानहीन मुढ़ी व्यक्ति का संग करने पर क्रोध में वृद्धि होती है धन का चिंतन ज्यादा करने पर लोभ में वृद्धि होती है बुद्धि विवेक एवं सद्गुणों की वृद्धि और शुद्ध विचार कवि गंग कहते हैं कि सज्जन व्यक्ति के संग से बढ़ते हैं।

सांसारिक संबंध की क्षणभंगुरता(सवैया)

रांक ऋषीसुर पामर पंडित चक्रवती चतुरंग चमू के।
गंग कहै पसु पंछी जु संख मुए कुलि कान-फनिन्द के फुँके।
काम बँध्यो कमला के कलोलनी भूलत है क़त कूर कहूँ के।
को सुत नारि हितु दिन चारि के बारि के बूंद बयारि के झुंके।।

काहू के साथ चली न हली अजहुँ किन चेति दई के सँवारे।
जा दसकन्ध के बन्दी हुते सुर तेहु परे रण माहि उघारे।
लंक पराई भई कवि गंग दसो दिशि बैठि रहे रखवारे।
रावन के मुख नावन को सु रति भरि को बिनती करि हारे।।

मित्रता का (दोहा एवं)

पिता बंधु परिजन सजन गंग जगत यह खेल।
ऊंच-नीच अपनो अपर जो मन मिले तो मेल।।

(सवैया)

हंस तो चाहत मानसरोवर मानसरोवर है रंग राता।
निर की बूंद पपीहा चाहत चंद्र चकोर के नेह का नाता।
प्रीतम प्रीत लगाई चले कवि गंग कहे जग जीवन दाता।
मेरे तो चित में मित बसे अरु मित्र के चित्र की जाने विधाता।।

प्रीत करो नित जान सुजान सो और हैवान सो प्रीति कहां।
छह मास सुवा तरु सेमल सेह्यों सु देश तज्यो परदेश रहा।
फल टूटी पड़ा पंछी राज उड़े जब चोच दई तो कपास लहा।
कवि गंग कहे सुनी शाह अकबर छाछ मिली यह दूध महान।।

गंग तरंग प्रवाह चले तहँ कूप को नीर पियो न पियो।
आनि ह्रदय आदि राम बसे तब और को नाम लियो न लियो।
कर्म संजोग सुपात्र मिले तो कुपात्र को दान दियो न दियो।
जिन मात पिता गुरू सेवा करि तिन तीर्थ व्रत कियो न कियो।
जिन सेवा टहल करि संतन की तिन योग ध्यान कियो न कियो।
कहे कवि गंग सुनि शाह अकबर मूर्ख को मित्र कियो न कियो।।

मेटि के चैन करे दिन रैन ज्यौ चाकरियो न सदा सुखकारी।
ताकौ न चेत धरे गुन सौ भए नेकु सो दोष निकारत गारी।
ले है कहा हम छाड़ि महाप्रभु हैं जु महा रिझवार बिहारी।
राज को संग कहै कवि गंग सुसिंघ को संग भुजंग की यारी।।

नारी-समोहन (कवित)

राजा राउ उमराउ कोउ जौ रिझाइ आप, ताहूँ सों बरयाइ गहि पाइ बगसाइये।
और अंग बेदनी को बैद बोलि लीजै गंग, देव भूत लाग्यौ होइ दीया दिखराइये।
रूप की ठगौरी मेली डोरी ज्यों जरत तन, ढोरीलागी मोहनी मोहनी जीभ नाइये।
तै तो लै परायो मन सरग पतार मेल्यो, तरुनी न तेरो नेक तारा मन्त्र पाइये।।

नारी की प्रीत (सवैया)

चंचल नारी की प्रीत न कीजिये प्रीत किए दुख होत है भारी।
काल परे कछु आन बने कब नारी की प्रीत है प्रेम कटारी।
लोहे को घाव दवा सो मिटे पर चित को घाव ने जाई विसारी।
गंग कहे सुनी शाह अकबर नारी की प्रीत अंगार ते छारी।।

सज्जन-महिमा (कबित)

सहत संताप आप पर को मिटावे ताप करुणा को द्रुम शुभ छाया सुख कारी है।
शूरवीर क्षमावान कोटपति नहीं मान ज्ञान को निधान भान धीर गुण धारी है।
शरण आए सुख देवे दोष दिल नहीं लेवे परमार्थ वृत्ति जिन सदा प्राण प्यारी है।
कहत है कवि गंग सुनो मेरे दिल्ली पति विरले सज्जन ऐसे विश्व बलिहारी है।।

धन देवै धाम देवै बात को विराम देवै, राज को लगाम देवै ऐसो प्रिय पेख्यों है।
समय अनुकूल रहे भूल थाप नाहीं देवै, निष्कपट न्यायिक कपट जानी छेख्यो है।
बात गुप्त राखें ढाखै बोले ना कभी हु भाखै, प्रकृति पिछान जाने लायकनी लेख्यो है।
कहत हैं कवि गंग सुनो मेरे दिल्लीपति समय पर सीख देवे ऐसो कोई देख्यो है।।

सज्जन नम्रता (छप्पय)

नवै तुरी बहु तेज नवै दाता धन देतो।
नवै अम्ब बहु फल्यो नवै घन जल बरसेतो।
नवै पुरुष गुणवान नवै गज बैल सवारी।
नवै सो भारी होय नवै कुलवंती नारी।
कंचन पै कसियो नवै गंग बैन सांचौ कह्वे।
सुका काठ अजान नर भाग पड़े पर नही नवै।।

यश की स्थिरता (कबित)

जोर जात जोर ही तै जर्ब परे भूमि जात, झूमि जात जोबन औ राग रंग रस है।
गढ़ गिरी जात गरुवाई औ गरब जात, जात महारूप औ सरूप सरबस है।
कहै कबि गंग सुख सम्पति समाज जात, जात मिटि दंपति दरिद्र परबस है।
बाग कटि जात कुआ ताल पटि जात, नदी नद घटि जात पै न जात जग जस है।।

स्वभाव-नियंत्रण (सवैया)

पावक को जल बूंद निवारण सूरज ताप को छत्र कियों है।
व्याधि को वैध तुरंग को चाबुक चौपग को वृख दंड दियो है।
हस्ती महामद को कीये अंकुश भूत पिचास को मंत्र कीयो है।
औखद है सबको सुखकारी स्वभाव को औखद नाही कियो है।।

भावार्थः कवि गंग आदत से लाचार व्यक्ति के बारे में कह रहे हैं कि जैसे अग्नि के जले हुए कोल पर पानी डालने से वो शांत हो जाता है (बुझ जाता है) सर पर छाता रखने से सूरज की गर्मी से बचा जा सकता है किसी भी प्रकार का रोग है उसकी औषधि लेने से वह रोग शांत हो जाता है चार पाव वाले पशु को किसी छड़ी के माध्यम से अधिकार में लिया जा सकता है महान बलशाली हाथी को अंकुश व घोड़े को चाबुक और भूत पिचास आदि को मंत्रों द्वारा वश में किया जा सकता है। औषधि सबके लिए सुखदाई होती है। लेकिन स्वभाव से कमजोर व्यक्ति के लिए कोई औषधि नहीं है।

मानव-महत्व (कबित)

कुपात्र को हेत कहा खादी बिन खेत जैसे, प्रीति बिन मित्र वाकू चितहु न आनिये।
मति बिना मर्द अरु नूर बिना नारी कहा, अर्थ बिना कवि वाकू पसु ज्यों प्रमानिये।
तोपें बिन फौज कहा हस्ती बिन हौद कहा, द्रव्य बिन देवै दान देव करि मानिये।
कहै कबि गंग सुनो साहिन के साहि सूरा, आदमी को मोल एक बोल में पिछानिये।।

गुणी की परख (कबित)

गुनी की रचना बीच बसना फुलेलन कों, बोले और खोले बिन कैसे करि जानिये।
जुरैगी बिरादरी महिपन की चारु जहाँ, गुनी और गँवार तहाँ कैसे पहचानिये।
मोती मोती एक रंग मोल भाँति भाँति कहै, जौहरी के आए बिन कैसे करि मानिये।
कहै कबि गंग देखौ भँवर कुरेवा दोऊ, एक रंग डार बैठे जाती अनुमानिये।।

राजाहीन देश में निवास-निषेध(छप्पय)

जहाँ न चंदन होइ तहाँ नहिं रहै भुवंगम।
जहाँ न तरुबर होइ तहाँ नहिं रहै विहंगम।
जहाँ न सत संतोष तहाँ आचार रहै किमि।
जहाँ नायिका समूह तहाँ व्रत शील रहै किमि।
परधान नही जिहिं राज में चोर साह नहिं अंतरौ।
बसिये न तहाँ कबि गंग कहि, खरि गुर जहाँ पटंतरौ।।

गुण की अज्ञानता (सवैया)

जट का जानहिं भट्ट को भेद कुंभार का जानहिं भेद जगा को।
मूढ़ का जानहिं गूढ़ कै बातन भील का जानहिं पाप लगा को।
प्रीति की रीति अतीत का जानहिं, भैस का जानहिं खेत सगा को।
गंग कहै सुनी साह अकबर गिद्ध का जानहिं नीर गंगा को।।

अवसर पर परख (सवैया)

नीति चले तो महीपति जानिये भोर में जानिये शील धिया को।
काम परै तब चाकर जानिये ठाकुर जानिये चूक किया को।
पात्र तो बातन माहिं पिछानिये नैन में जानिये नेह तिया को।
गंग कहै सुनि साह अकबर हाथ में जानिये हेत हिया को।।

नकार-महत्व(दोहा)

न न अच्छर सब सों निरस सुनि उपजत अनहेत।
कामिनि के मुख कबि गंग पल पल शोभा देत।।

दिनन का फेर (कबित्त) कवि गंग के दोहे

एक दिन ऐसो जा में सिबिका है गज बाजि एक दिन ऐसो जामें सोइबे को सैसो है।
एक दिन ऐसो जामें गिलम गलीचा लागै, एक दिन ऐसो जामें तामे को न पैसो है।
एक दिन ऐसो जामें राजन सों प्रीति होत, एक दिन ऐसो जामें दुस्मन को धैसो है।
कहै कबि गंग नर मन में बिचारि देखि, आज दिन ऐसो जात काल दिन कैसो है।।

बेद होत फूहर, थूहर कलपतरु, परमहंस चूहर की होत परिपाटी को।
भूपति मँगैया होत, ठाँठ कामधेनु होत, गैयर झरत मद, चेरो होत चाँटी की।
कहै कबि गंग पुनि पुन्य कियें पाप होत, बैरी निज बाप होत, साँप होत साँटी को।
निर्धन कुबेर होत, स्यार सम सेर होत, दिनन के फेर सों सुमेर होत माटी को।।

जिनको निहारि रूप, मोहत अनूप जन, तेई तिय-बिरह बिरूप-मुख भटके।
जिनको सुनत गुन भूप उमहै अनूप, तेई लघु लोगन के लोभ लगे लटके।
आए रन-रंग रँगि जिनको सराहियत, तेई सूर कूरन आगे सीस पटके।
ढूँढत जिनहिं गंग पैयै न परसिबे कों, तेई द्वार द्वारनि रुपैयन कों भटके।।

कर्म-गोपन असंभवता(सवैया)

तारा की ज्योति में चंद छिपे नहीं सूरज छिपे नही घन बादर छाया।
चंचल नारी के नैन छिपे नहीं प्रीत छिपे नहीं पीठ दिखाया।
रण चड्यो रजपूत छिपे नहीं दातार छिपे नहीं घर मांगन आया।
कहे कवि गंग सुनी शाह अकबर कर्म छिपे नहीं भभूत लगाया।।

शब्दार्थ:-
इस छंद के माध्यम से कवि हमें यह बता रहे हैं कि जैसे आसमान में तारों की अधिकता हो जाए तो भी चंद्रमा की रोशनी को नहीं दबा सकते अगर आसमान में बहुत सारे बादल छा जाए तो भी सूर्य की रोशनी को ज्यादा देर तक छिपाया नहीं जा सकता चंचल स्त्री के नैन बता देते हैं कि उसका चरित्र कैसा है आपकी किसी से प्रीती है तो आप छुपा नहीं पाओगे चाहे मुंह फेर लो युद्ध के मैदान में क्षत्रिय राजपूत की कीर्ति छुप नहीं सकती और दातार यानी दानी का घर पर आए याचक से पता लग ही जाता है कि कितना दातार है आप चाहे अनेकों भेष कर लो पर आपके कर्म नहीं छिप सकते आप अपने कर्म पवित्र रखो शुद्ध रखो कवि गंग का भाव यह है।

(सवैया)

रैन भए दिन तेज छिपै अरु सूर्य छिपै अति-पर्व के छाए।
देखत सिंह छिपै गजराज, सो चंद छिपै है अमावस आए।
पाप छिपै हरिनाम जपे, कुलकानि छिपै है कपूत के जाए।
गंग कहै सुनि साह अकब्बर कर्म छिपै न भभूत लगाए।।

फूट-परिणाम (कबित्त) कवि गंग के दोहे

फूटि गएँ हीरा की बिकानी कनी हाट हाट, काहू घाट मोल, काहू बाट मोल को लयो।
दूटि गई लंका फूटि मिल्यो जौ बिभीषन है, रावन समेत बंस आसमान को ठयो।
कहै कबि गंग दुरजोधन सो छत्रधारी, तनक में फूटे तें गुमान वाको नै गयो।
फूटे तें नरद उठि जात बाजी चौसर की, आपुस के फूटें कहु कौन को भलो भयो।।

मूढ़ आगे विद्या (कबित्त)

कहे तें समझ नाहिं, समझाए समझै ना, कबि लोग कहैं काहि करै अब सारसी।
काक कों कपूर जैसे, मरकट को भूषन, जैसे ब्राह्मन को मक्का, पीर को बनारसी।
बहिरे के आगे तान गाए को सवाद जैसे, हिंजरे के आगे नारि लागत अँगार सी।
कहै कबि गंग मन मा ह तौ बिचारि देखौ, मूढ़ आगे बिद्या जैसे अंध आगे आरसी।।

अविवेकी-सेवानिषेध (छप्पय)

कहा नीच की प्रीत, कहा कोटू का कीड़ा।
कहा चिड़ी की लात, कहा गाड़र का धीड़ा।
कहा कृपन का दान, कहा पाहन का बूटा।
कह बिषधर सों नेह, कहा केहरि का टूटा।
गंग कहै गुनवंत सुनि, फुटी नाव क्यों खेइये।
गुन औगुन समझें नहीं, ते कुट्टन क्यों सेइये।।

कुमानुष को सीख (सवैया)

दाख बड़ो फल है सुखदायक, काग भखै तौ महा दुख पावै।
मिस्त्र अमोल, बहोत मिठास मै, जौ खर खावै तौ प्रान नसावै।
सीत बिना फल खाइ छुहारे तौ, ताते तुरंग को तेज नसावै।
गंग कहै सुनि साह अकब्बर, सीख कुमानुष कों नहिं भावै।।

अन्यायी नृपति (कबित्त)

रजो गुन कहत हैं, दीनन कों जानैं नहीं, ताते बोलैं बोल ताते तेल में नहायँगे।
न्याव न्याव कहैं कछु न्याव की न बूझै बात, बिगर सुन्याव सो बड़ीयै मार खायँगे।
कहै कबि गंग खोटे जीव दुखदाई सब, मीडि मीडि हाथ कों वे फेरि पछतायँगे।
कहा भयो दिना चार गद्दी के मुसद्दी भए, बद्दी के करैया सब रद्दी होइ जायँगे।।

कुटेव का न जाना (सवैया)

लैहसुन गाँठ कपूर के नीर में, बार पचासक धोइ मँगाई।
केसर के पुट दै दै कै फेरि, सु चंदन बृच्छ की छाँह सुखाई।
मोगरे माहिं लपेटि धरी गंग, बास सुबास न आव न आई।
ऐसेहि नीच कों ऊँच की संगति, कोटि करौ पै कुटेव व जाई।।

शब्दार्थ:-
कवि इस छंद में लहसुन के माध्यम से यह कहना चाह रहे हैं कि लहसुन को देखिए वह अपना स्वाभाविक गुण नहीं छोड़ता चाहे कपूर के पानी में रख दो 50 बार धो लो केसर के लेप लगा लो चाहे चंदन के वृक्ष की छाया में सुखाने के लिए रख दो चाहे मोगरे के पुष्पों की टोकरी में रख दो फिर भी उसमें किसी की भी सुगंध नहीं आयेगी सिर्फ उनके अपने निजी गुण के अलावा ऐसे ही दुष्ट प्रवृत्ति के व्यक्ति चाहे कितनी भी ऊंची संगति में रह ले लेकिन वह अपने स्वभाव को कुछ भी हो जाए नहीं त्यागता दुष्ट व्यक्ति अपने दुर्गुण के प्रति दृढ़ संकल्प वाला होता है। कवि गंग के दोहे

दूर रहना (सवैया)

बाल सों ख्याल, बड़े सों बिरोध, अगोचर नारि सों ना हँसिये।
अन्न सों लाज, अगिन्न सों जोर अजानत नीर में ना धंसिये।
बैल को नाथ, घोड़े को लगाम, मतंग कों अंकुस में कसिये।
गंग कहै सुनि साह अकब्बर, कूर तें दूर सदा बसिये।।

दुर्जन (कबित्त) कवि गंग के दोहे

अकारन क्लेस करै, ईरषा में अंग जरै, रंग देखि रीझै नहिं दृष्टिदोष खड़ो है।
आप को न करै काज पर कों करै अकाज, लोगन की छाँडी लाज, असूया में अड़ो है।
मन बानी काया कूर और कों सतावै सूर, काम क्रोध हो हजूर बिधना क्यों घड़ो है।
कहत है कबि गंग साहिन के साहि सूरा, दुनिया में दुख्ख एक दुर्जन को बड़ो है।।

ठगी (कबित्त)

देखत कै बृच्छन में दीरघ सुभायमान, कीर चल्यो चाखिबेकों प्रेम जिय जग्यो है।
लाल फल देखि कै जटान मँडरान लागो, देखत बटोही बहुतेरो डगमग्यो है।
गंग कबि फल फूटें भुआ उधिरान लखि, सबन निरास है कै निज गृह भग्यो है।
ऐसो फलहीन बृच्छ बसुधा में भयो यारो, सेमर बिसासी बहुतेरन को ठग्यो है॥

दानी और सूम (सवैया)

जौहिरी लोग जवाहिर जाँचक दानी औ सूम की कीरति गावै।
तौन के भौन को स्वाल कहा, जिनि हाल के देखे हवाल बतावै।
गंग भनै कुलधर्म छिपै नहिं चाम की टूकरी काम न आवै।
स्यारथरी में खुरी पुंछ कंथरे सिंहथरी मुकता-गज पावै॥

दान (कबित्त)

कन्यादान लेत सब छत्रपती छत्रधारी, हयदान गजदान भूमिदान भारी है।
राजा माँगे रावन पै, राव माँगै खानन पै, खान सुलतानन पै भिच्छा कछु डारी है।
मिच्छा के काजै कबि गंग कहै ठाडै द्वार, बलि से नृपति तहाँ बावन बिहारी है।
संपदा के काजै कहौ कौनै नहिं ओड्यो हाथ, जहाँ जैसो दान तहाँ तैसाई भिखारी है।।

दान में टाँच मारना (सवैया)

गंग कहे सुन लीजो गुनी अरे मंगन बीच परो मती कोई।
बीच परो तो रहो चुप हवे करी आखिर इज्जत जात है खोई।
बली के बामन के दरमियान में आन भई जो भई गति जोई।
लेत है कोई ओ देत है कोईपे शुक्र ने आंख अनाहक खोई।।

कृपण (सवैया)

धूर परै उनके धन पै जिनको धन पुन्न के काम न आवै।
धूर परै उनके तप पै जिनके तप तें अघ दूर न जावै।
काह कहूँ उन भूपन तें जिनको अरि पैर की धूर न खावै।
धाम ढहौ तिनके कहि गंग जिके घर मंगन मानन पावै।।

भट्ट कैसा होता है (कबित्त)

पवन को तोल करै, गगन को मोल करै, कबि सों बाँधहि डोल ऐसो नर भाट है।
पत्थर सों कातै सूत, बाँझ को बढ़ावै पूत, मसान में बसै भूत ताको घर भाट है।
बिजली करै कलेवा दवनी सों राखै देवा, राहु कों खवावै मेवा, सो सद्धर भाट है।
मेघन को राखै ढेरा, तख्त का लुटावै डेरा, मन का सँभारे झेरा, ऐसा नर भाट है।।

चौधरी (कबित्त)

चूतिया चलाक चोर चौपट चवाई च्युत, चौकस चिकित्सक चिबिल्ला औ’ चमार है।
चौसरखिलार सिर चाँदुल चपल चित, चतुर चुहेड़ा चरगन चिड़ीमार है।
चिहुकन चटना चुहुलबाज गंग कहै, चुगल चंडाल चरपरिया चपार है।
जुलम की चाल सब जाल को हवाल जाने, चौधरी बखानौं जामें चौबिस चकार है।।

सपूत-कपूत (छप्पय)

छप्पर रेंड छबाय तबै तरु कौन करावै।
खर तें हो संग्राम ताजिया कौन चरावै।
लहसन गंधित होय कौन केसरहि बहोरै।
बेस्या तें घर चलै कौन कुलवंती खोरै।
जौ होय तमासा काग तें तौ बाजै कौन सिकारियै।
जौ काज कपूता तें सरै तौ कौन सपूता पारियै।।

भूख (सवैया)

भूख में राज को तेज सबै घटै भूख में सिद्ध की बुद्धिहु हारी।
भूख में कामिनी काम तजै अरु, भूख में तज्जत पूरुष नारी।
भूख में कोऊ रहै व्यवहार न भूख में कन्या रहत्त कुमारी।
भूख में गंग बनै न भजन्नहु चारहु बेद तें भूख है न्यारी॥

सूँघन बास को नाक दई, अरु आँख दई जग जोवन कों।
दान के काज दिये दोऊ हाथ, सो पाँउ दिये पृथी घूमन कों।
कान दिये सुनिबे कों पुरान, सु जीभ दई भज मोहन कों।
गंग कहै सब नीको दियो, पर पेट दियो पत खोवन कों॥

सुख-सामग्री (दोहा)

पान पुराना घी नया, अरु कुलवंती नारि।
चौथी पीठि तुरंग की, स्वर्ग निसानी चारि॥

नारी-कुचाल (कबित्त)

कुंती के पाँच पुत्र पति को न भयो एक, दुसासन को गर्भ गिरयो जग गीत जानी है।
कहै कबि गंग उनको गंगा तें कुल चल्यो, गाँग को न भयो ब्याह झूठी ही बखानी है।
तिहारौ तौ पांडव फेर कछु ही कहौं नाहिं, पाँच पति एक नारि औसरे सों मानी है।
धीयन के मामले में कोऊ कछु कहै नाहिं, ऐसे सब बैठे मेरी नेक आँख कानी है।।

बैठे इंद्र इनके हजार भग पैदा भई, छाप लागी चंद्र के दलाली की निसानी है।
बैठे मुनि ज्ञानी मृगछालाहू बिछाइ रहे, बेस्या के मित्र इन तें नेक ना गिलानी है।
क्वारी के कर्न भए पंडु तें न पांडौ भए, दादी मछोदरी की जगत्त जाति जानी है।
गोपिका अहीर कृस्न वाकी कुछ जाति नाहिं, ऐसे सब बैठे मेरी नेक आँख कानी है।।

जीम-निंदा (कवित्त)

नाटक साटक बर बंधन प्रबंध छंद
ठगारी बयारी गारी कहा न कहति है।
कहि कबि गंग राम नाम तें बिमुख नित एकहु निमिष, सिख सूधे न गहति है।
याहू माँझ आधि व्याधि झरति उपाधि और ठौर काढ़ि काढ़ि कै कहाँ तें उलहति है।
बारू बारू जनम बिगारू बनि दारू की सी, नारू या निगोड़ी जीभ तारू में रहति है।।

ऋणग्रस्तता (सवैया)

नटवा लौं नटै न टरै पुनि मोदी, सु डाँडिन में बहु भाव भरै।
सजि गाजै बजाज अवाज मृदंग लौं, बाँकियै तान गिनौरी लरै।
पट धोबी धरै, अरु नाई नरै, सु तमोलिन बोलिन बोल धरै।
कबि गंग के अंगन मंगनहार, दिना दस तें नित नृत्य करै।।

कानी आँख (सवैया)

मेरी कानी आँखि कछु पाप तें न फूटि गई, अपने जन की पीर कौने नहिं मानी है।
कोई लेइ कोई देइ आप कछु काम नाहि, साँची के कहे में कछु आवति ही हानी है।
क्यों रे पानी कृस्न सब बलि को लयो तें लूटि, मेरी फोड़ी आँखि करी पाप की निसानी है।
कहै कबि गंग यहै सुक्र ने जवाब दयो मेरी आँखि कानी वाकी आनी जग मानी है।।

गरज (सवैया)

गर्ज ते अर्जुन क्लीब भए, अरु गर्ज तें गोबिंद धेनु चरावै।
गर्ज तें द्रौपदी दासी भई, अरु गर्ज तें भीम रसोई पकावै।
गर्ज बडी त्रय लोकन में, अरु गर्ज बिना कोइ आवै न जावै।
गंग कहै सुनि साह अकब्बर, गर्जतें बीबी गुलाम रिझावै।।

रति (सवैया)

रती बिन राज, रती बिन पाट, रती बिन छत्र नहीं इक टीको।
रती बिन साधु रती बिन संत, रती बिन जोग न होय जती को।
रती बिन मात रती बिन तात, रती बिन मानस लागत फीको।
गंग कहै सुनि साह अकब्बर, एक रती बिन एक रती को॥

रुपया (सवैया)

मात कहै मेरो पूत सपूत है, भैन कहै मेरो सुंदर भैया।
तात कहै मेरो है कुलदीपक, लोक में लाज रु धीरबँधैया।
नारि कहै मेरो प्रानपती अरु जीवन जान की लेउँ बलैया।
गंग कहै सुनि साहि अकब्बर, सोई बड़ो जिन गाँठ रुपैया।।

शब्दार्थ:-
इस छंद के माध्यम से कवि गंग हमें इस संसार की वास्तविकता हमारे सामने रख रहे हैं कि आपका अपना यहां कोई नहीं है माता भी आपको सपुत्र कह रही है बहन भी आपको सुंदर बता रही है पिता आपको अपने कुल का चिराग अपनी वंशवेल कह रहे हैं और पत्नी कह रही है कि मेरे पति मेरे प्राणप्रिय मेरे भगवान है मैं इनकी बलैया लेती हूं इतना कुछ होने के बाद भी कवि गंग हमें यह कह रहे हैं कि आपके पास पद पैसा और प्रलोभन है तो आपको सब यही कहेंगे जब इनमें से एक भी उपाधि आपके पास नहीं है तो यह सब आपको इसके विपरीत बताएंगे यह सिर्फ नियम है वास्तव में आपका अपना तो वह परमपिता परमात्मा है जो इस आत्मा का जनक है जिसे हम:-

त्वमेव माता च पिता त्वमेव त्वमेव बंधु च सखा त्वमेव।
त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव त्वमेव सर्वं मम देव देव।। कवि गंग के दोहे

बुराई (छप्पय)

बुरो प्रीति को पंथ, बुरो जंगल को बासो ।
बुरो नारि को नेह, बुरो मूरख सों हाँसो।
बुरी सूम की सेव, बुरो भगिनी-घर भाई।
बुरी कुलच्छनि नारि, सास-घर बुरो जमाई।
बुरो पेट पप्पाल है, बुरो जुद्ध तें भागनो।
गंग कहै अकबर सुनौ, सबतें बुरो है माँगनो।।

शब्दार्थ:-
इस संसार में कुछ नियमों को निभाना कठीन है जैसे हम किसी से प्रीति करते हैं यह आसान है मगर उसे निभाना बड़ा कठिन होता है जंगल दूर से अच्छा दिखता है मगर उसमें रहना पड़ जाए तो यह कठिन है पर स्त्री से नेह लगाना बहुत बुरा है एक बार भी फस गए कभी नहीं निकल पाएंगे मूर्ख व्यक्ति की हंसी बुरी होती है क्योंकि बे मतलब की बात अच्छी नहीं होती कंजूस व्यक्ति की सेवा करना कठिन है बहन के घर भाई बुरा है कुल्टा स्त्री कुल के लिए बहुत बुरी होती है घर जमाई की ससुराल में कोई कदर नहीं होती अगर आप अपना काम कर रहे हो ससुराल में हो उसे घर जमाई नहीं कहते घर जमाई का अर्थ ससुर की रोटियों पर पलना है इस संसार में पेट की भुख कभी नहीं मिटती है नहीं उसकी पूर्ति में सारा जीवन लगा लेते हैं बहुत कठिन है युद्ध क्षेत्र से भागना भागने वाले की मृत्यु से ही भी भयानक स्थिति हो जाती है और इस संसार में मांगना सबसे बुरी चीज है मांगन मरण समान है। कवि गंग के दोहे

अकबर-निंदा (सवैया)

एक को छोड़ि बिजा को भजै, रसना सु कटौ उस लब्बर की।
अब तौ गुनिया दुनिया को भजै, सिर बाँधत पोट अटब्बर की।
कबि गंग तौ एक गोबिंद भजै, कछु संक न मानत जब्बर की।
जिनकों हरि की परतीति नहीं सो करौ मिलि आस अकब्बर की।। कवि गंग के दोहे

शादर्थ:-
इस छंद के माध्यम से कवि हमें जीवन का सार समझाते हुए कहना चाहते हैं कि उसे एक पूर्ण परमात्मा सबका मालिक सर्वशक्तिमान परमपिता को छोड़कर किसी और पर भरोसा रखता है किसी अन्यत्र पर आश्रित रहता है प्रभु को भूल कर किसी और के गुणगान करता है ऐसे व्यक्ति की जीव्या क्यों नहीं कट जाती उस लब्बार की जो गुणवान होते हुए भी इस संसार के झूठे मालिकों का गुणगान करते हैं वह तो अपने लिए पाप की गठरी लाद रहे हैं मैं कवि गंग तो एक परमात्मा को भजता हूं और उस पर ही आश्रित रहता हूं उसके अलावा मेरा कोई स्वामी नहीं है हां जिनको उस परमपिता परमात्मा के ऊपर विश्वास नहीं है वह इस संसार रूपी अकबर पर निर्भर रहेंगे इसकी आशा करेंगे

उपरोक्त रचना की अंतिम पंक्ति अकबर को अपमानजनक लगी इसलिए अकबर ने कवि गंग को उसका साफ अर्थ बताने के लिए कहा। कवि गंग इतने स्वाभिमानी थे कि उन्होंने अकबर को यह जवाब दियाः

एक हाथ घोडा एक हाथ खर
कहना था सो कह दिया करना है सो कर।।

कवि गंग अत्यन्त स्वाभिमानी थे। उनकी स्पष्टवादिता के कारण ही उन्हें हाथी से कुचलवा दिया गया था। अपनी मृत्यु के पूर्व कवि गंग ने कहा थाः

कभी ना भड़वा रण चढ़े कभी न बाजी बंब।

सकल सभा प्रणाम करी विदा होत कवि गंग।। कवि गंग के दोहे

विजया-प्रशस्ति (कबित्त)

बिजया बिलार खास स्वानहू के कान गहै, स्वानहू जौ खाय सो तौ धावै गजराज कों।
गजराजहू जौ खाय कोटि सिंह हाथ डारै, बनिया जो खाय तौ लुटाय देत नाज कों।
नामरद खाय तौ मरद के से काम करै, महरी जौ खाय सो तौ धावै काम काज कों।
कहै कबि गंग गुन देखौ बिजया के ऐसे, चिड़िया जौ खाय तौ झपटि परै बाज कों।।

मृग (छप्पय)

सवन गीत-हित दिये नैन दिय बर तियानि कहि।
शृंग दिये जोगीन माँस भोगीन पुरुष महि।
जीव बधिक को दियो तुचा मुनिबर कह दीनी।
ससिरथ दिये जु कंध, नृपति-तन मृगमद भीनी।
सगुन सरस पंथीन कह रन काइर दिय चरन सोइ।
कबि गंग कहै इमि साह सुनि, मृग समान दाता न कोइ।।

कबि गंग की सीख (कबित्त)

कायर को खेत कहा, कपटी सों हेत कहा, बेस्या बिसवास कहा, कब लौं पत्याइयै।
बारू की भीत कहा, ओछे सों प्रीति कहा, राँग को रुपैया कहा, बार बार ताइयै।
काठ की कटार लैकै कौन जंग जीति आयो, कागज को घोड़ा कहौ कौं लगि दौड़ाइये।
गुलाम के तिलाम औ तिलामन के बादसा गंग से गुनी कहा गयंद पै तुड़ाइयै ।।

गाय की अकबर से पुकार (छप्पय)

दंतन त्रिन जे देहिं तिन्हैं मारै न सबल कोइ।
हम नित प्रति तृन चरै बोल बोलैं सुदीन होइ।
हिंदू कौं दै मधुर, बिषै तुरकैं न पिवावहिं।
दुहूँ दीन के काज पुत्र महि थंभन जावहिं।
फिरयाद अकब्बर साह सुनि गऊ कहत जोरै करन।
मारियै कौन अपराध सों, (हम) मुए चाम सेवे चरन।।

मूर्ख की हठ नहीं छोड़ता (कबित)

जार को बिचार कहा, गनिका को लाज कहा, गधा कों किताब कहाँ, आँधरे को आरसी।
सूमन की सेव कहा, दरिद्री को दान कहा, निगुने कों गुन कहा, एरैंड की डार सी।
मदिरा को सुचि कहा, नीच को बचन कहा, लंपट को साँच कहा, स्यार की पुकार सी।
कहै कबि गंग सठ टरत न हठ क्यों हूँ, भावै सूधी बात कहौ भावै कहौ पारसी।।

बारह नालायक (सवैया)

पूत कपूत, कुलच्छनि नारि, लराक परोस, लजावन सारो।
भाई भटीट, पुरोहित लंपट, चाकर चोर अतीव धुतारो।
साहब सूम, अड़ाक तुरंग, किसान कठोर दिमान चिकारो।
गंग कहै सुनि साह अकब्बर बारहुँ बाँधि कुवा महिं डारो।।

गंग-प्रशस्ति

बानी बिनोद रची तुक दंड बची न गई कबि उप्पमा सोऊ।
आज कबित्त बनै तबही जब वेई सुअच्छर आनि समोऊ।
कहै परसोतम ऐसे गुनीन ही छैहै न वै गए पाछिले कोऊ।
सूर सुजान बड़े कबि गंग ये आँधरे ऊधम कै भए दोऊ।।

सुंदर पद कबि गंग के उपमा को बरबीर।
केसव अर्थ गंभीर को सूर तीन गुन धीर।।

सब देवन को दरबार जुस्यो तहँ पिंगल छंद बनाय कै गायो।
जब काहु तें अर्थ कह्यो न गयो तब नारद एक प्रसंग चलायो।
मृतलोक में है नर एक गुनी कबि गंग को नाम सभा में बतायो।
सुनि चाह भई परमेसर को तब गंग को लेन गनेस पठायो।।

तुलसी गंग दोऊ भए, सुकबिन के सरदार।
इनकी काब्यनि में मिली, भाषा बिबिध प्रकार॥

साह अकबर महाकबि नरहरि जी कों दीन्ह्यो महापात्र पद मरजाद जाती में।
तापै चौर चोपदार चामीकर पग दीन्ह्यो पालकी में कंध केते पुर लिखि पाती में।
गंग कबि हेत घने तैसे गज ग्राम दीन्हें आज लगि वा न मान भोज अधिकाती में।
संगदिल साह. जॅहगीर सो उमंग आज देत है मतंग पद सोई गंग छाती में।।

सत्संग की महिमा (सवैया)

मेरा चित्त बसें उस मित की पास तौ मित का चित्त की जाणें विधाता।
तां बिछड़ा मोहे धान न भावै नो पाणी न फूल न पान सुहाता।
जागत जागत रैन पड़ी महि नींद न आवे जि सेज सुहाता।
हरिबंस के सामी कूँ जैसें भजू जैसें सावण बूंद पपीहा लबाता।।

है सतसंग बड़ो जग में हरि अंकित सिंधु सिला उतराने।
पारस के परसे तन लोह दिपै दुति हेमस्वरूप समाने।
गंग कहै मलयाचल बात छुए तरु ईस के सीस चढ़ाने।
कीट कृमी अति के परसंग फिरै अलि है मकरंद छकाने।।

कवि गंग के दोहे सुनने के लिए कृपया यहां क्लिक करें

भस्मी में रमावत शंकर के

भस्मी लगावत शंकर के अहि लोचन मध्य परो झरि कै।।
अहि फुफकार लगी शशी को तब अमृत बूंद परी चरी कै।।
उठ मृगराज घृणाट कियाे तब सुरभी सुत भाग परि कै।।
कवि गंग एक अचंभो भयो तब गवर हंसी मुख यूं करि कै।। कवि गंग के दोहे

शब्दार्थ:-
एक बार शिव जी अपने निजधाम में विराजमान थे और अपने अंग पर भभूति लगा रहे थे भूलवश वह भस्मी सर्प के आंख में गिर गई सर्प ने जोर से फूफकार की तो ऊपर चंद्रमा को जाके लगी चंद्रमा से अमृत की कुछ बूंदें छलक कर गिर गई वह अमृत की बूंद शिव जी के बाघअंबर पर गिरि खाल से अमृत का स्पर्श होने पर वह खाल बाघ अमृत की वजह से जीवित हो गया और खड़ा हुआ जोर से दहाड़ मारी तो नंदी महाराज डर के मारे भाग गए यह नजारा पार्वती जी ने देखा तो शिवजी के सामने देख उन्होंने मुंह फेर कर जोर से हंसने लगी यह चित्रण कवि ने अपने सुंदर काव्य में किया है इसको एक अन्य अज्ञात कवि द्वारा भी वर्णन किया गया है

भभूत लगावत शंकर को, अहिलोचन मध्य परौ झरि कै।

अहि की फुँफकार लगी शशि को, तब अंमृत बूंद गिरौ चिरि कै।
तेहि ठौर रहे मृगराज तुचाधर, गर्जत भे वे चले उठि कै।
सुरभी-सुत वाहन भाग चले, तब गौरि हँसीं मुख आँचल दै॥

शब्दार्थ:-
अर्थात् (प्रातः स्नान के पश्चात्) पार्वती जी भगवान शंकर के मस्तक पर भभूत लगा रही थीं तब थोड़ा सा भभूत झड़ कर शिव जी के वक्ष पर लिपटे हुये साँप की आँखों में गिरा। (आँख में भभूत गिरने से साँप फुँफकारा और उसकी) फुँफकार शंकर जी के माथे पर स्थित चन्द्रमा को लगी (जिसके कारण चन्द्रमा काँप गया तथा उसके काँपने के कारण उसके भीतर से) अमृत की बूँद छलक कर गिरी। वहाँ पर (शंकर जी की आसनी) जो मृगछाला थी वह (अमृत बूंद के प्रताप से जीवित होकर) उठ कर गर्जना करते हुये चलने लगा। सिंह की गर्जना सुनकर गाय का पुत्र – बैल, जो शिव जी का वाहन है, भागने लगा तब गौरी जी मुँह में आँचल रख कर हँसने लगीं मानो शिव जी से प्रतिहास कर रही हों कि देखो मेरे वाहन (पार्वती का एक रूप दुर्गा का है तथा दुर्गा का वाहन सिंह है) से डर कर आपका वाहन कैसे भाग रहा है।

ठनन ठनन ठनन ठहक्यो ?

करी कै जू श्रृंगार अटारी चढ़ी मन लालन सों हियरा लहक्यों।।
सब अंग सुबास सुगंध लगाइके बास चहुं दिश को महक्यों।।
कर ते इक कंगन छुटी परियों सीढियां सीढ़ियां सीढियां बहक्यो।।
कवि गंग भने इक शब्द भयौ ठनन ठनन ठनन ठहक्यो।।

शब्दार्थ:-
एक बार बादशाह अकबर का दरबार लगा हुआ था बादशाह को वह घटना बता रखी थी तब बादशाह ने सबके सामने एक प्रश्न रखा कि ठनन ठनन ठनन क्या ठहकयो इस प्रश्न का उत्तर देने वाले को 10000 स्वर्ण मुद्राएं दी जाएगी कवि गंग ने इस चुनौती को स्वीकार किया और 1 दिन का समय मांगा दूसरे दिन कवि गंग ने उत्तर दिया कि जहांपना बेगम ने अपना पूरा श्रृंगार करके आपसे मिलने के लिए आपकी तरफ बढ़ रही थी मन में आपसे मिलने की उमंग हिलोरे ले रही थी पूरे अंगों में इत्र की सुगंध उससे सारा महल महक रहा था आपसे मिलने की बेसब्री में हाथ से कंगन गिर गया और वह कंगन महल की सीढ़ियों से टकराता हुआ नीचे आ रहा था उसकी आवाज ठनन ठनन वह ठहक रहा था बादशाह बड़ा खुश हुआ।

कवि गंग के विषय में भिखारीदास जी का कथन हैः “तुलसी गंग दुवौ भए, सुकविन में सरदार”। कवि गंग के दोहे

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गिरधर कविराय की कुंडलियां मंगलगिरी जी की कुंडलियाँ सगराम दास जी की कुण्डलिया रसखान के सवैया उलट वाणी छंद गोकुल गांव को पेन्डो ही न्यारौ

धर्म क्या है दोहे अर्थ सहित पढ़ाई कैसे करें दोहे अर्थ सहित गुरु महिमा के दोहे

lagan tumse laga baithe lyrics- लगन तुमसे लगा बैठे जो होगा देखा जाएगा


अंदाज में - धन्वंतरि दास  जी महाराज के 

         किसी से उनकी मंजिल का पता तर्ज

    लगन तुमसे लगा बैठे जो होगा देखा जाएगा
    तुम्हें अपना बना बैठे जो होगा देखा जाएगा ||

    कभी दुनियाँ से डरते थे छुप छुप याद करते थे
    लो अब परदा उठा बैठे जो होगा देखा जाएगा
    लगन तुमसे लगा बैठे जो होगा देखा जाएगा
    तुम्हें अपना बना बैठे जो होगा देखा जायेगा ||

            कभी यह ख़याल था दुनियाँ हमें बदनाम कर देगी
            शर्म अब बेच खा बैठे जो होगा देखा जाएगा
            लगन तुमसे लगा बैठे जो होगा देखा जाएगा
            तुम्हें अपना बना बैठे जो होगा देखा जायेगा ||

            दीवाने बन गए तेरे तो फिर दुनियाँ से क्या मतलब
            तेरी गलियों में आ बैठे जो होगा देखा जाएगा
            लगन तुमसे लगा बैठे जो होगा देखा जाएगा
            तुम्हें अपना बना बैठे जो होगा देखा जायेगा
            लगन तुमसे लगा बैठे जो होगा देखा जाएगा
            तुम्हें अपना बना बैठे जो होगा देखा जायेगा ||



 


मोस्ट दोहे सवैया

ऋणग्रस्तता (सवैया)

नटवा लौं नटै न टरै पुनि मोदी, सु डाँडिन में बहु भाव भरै।
सजि गाजै बजाज अवाज मृदंग लौं, बाँकियै तान गिनौरी लरै।
पट धोबी धरै, अरु नाई नरै, सु तमोलिन बोलिन बोल धरै।
कबि गंग के अंगन मंगनहार, दिना दस तें नित नृत्य करै।।

कानी आँख (सवैया)

मेरी कानी आँखि कछु पाप तें न फूटि गई, अपने जन की पीर कौने नहिं मानी है।
कोई लेइ कोई देइ आप कछु काम नाहि, साँची के कहे में कछु आवति ही हानी है।
क्यों रे पानी कृस्न सब बलि को लयो तें लूटि, मेरी फोड़ी आँखि करी पाप की निसानी है।
कहै कबि गंग यहै सुक्र ने जवाब दयो मेरी आँखि कानी वाकी आनी जग मानी है।।

गरज (सवैया)

गर्ज ते अर्जुन क्लीब भए, अरु गर्ज तें गोबिंद धेनु चरावै।
गर्ज तें द्रौपदी दासी भई, अरु गर्ज तें भीम रसोई पकावै।
गर्ज बडी त्रय लोकन में, अरु गर्ज बिना कोइ आवै न जावै।
गंग कहै सुनि साह अकब्बर, गर्जतें बीबी गुलाम रिझावै।।

रति (सवैया)

रती बिन राज, रती बिन पाट, रती बिन छत्र नहीं इक टीको।
रती बिन साधु रती बिन संत, रती बिन जोग न होय जती को।
रती बिन मात रती बिन तात, रती बिन मानस लागत फीको।
गंग कहै सुनि साह अकब्बर, एक रती बिन एक रती को॥

रुपया (सवैया)

मात कहै मेरो पूत सपूत है, भैन कहै मेरो सुंदर भैया।
तात कहै मेरो है कुलदीपक, लोक में लाज रु धीरबँधैया।
नारि कहै मेरो प्रानपती अरु जीवन जान की लेउँ बलैया।
गंग कहै सुनि साहि अकब्बर, सोई बड़ो जिन गाँठ रुपैया।।

शब्दार्थ:-
इस छंद के माध्यम से कवि गंग हमें इस संसार की वास्तविकता हमारे सामने रख रहे हैं कि आपका अपना यहां कोई नहीं है माता भी आपको सपुत्र कह रही है बहन भी आपको सुंदर बता रही है पिता आपको अपने कुल का चिराग अपनी वंशवेल कह रहे हैं और पत्नी कह रही है कि मेरे पति मेरे प्राणप्रिय मेरे भगवान है मैं इनकी बलैया लेती हूं इतना कुछ होने के बाद भी कवि गंग हमें यह कह रहे हैं कि आपके पास पद पैसा और प्रलोभन है तो आपको सब यही कहेंगे जब इनमें से एक भी उपाधि आपके पास नहीं है तो यह सब आपको इसके विपरीत बताएंगे यह सिर्फ नियम है वास्तव में आपका अपना तो वह परमपिता परमात्मा है जो इस आत्मा का जनक है जिसे हम:-

त्वमेव माता च पिता त्वमेव त्वमेव बंधु च सखा त्वमेव।
त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव त्वमेव सर्वं मम देव देव।। कवि गंग के दोहे

बुराई (छप्पय)

बुरो प्रीति को पंथ, बुरो जंगल को बासो ।
बुरो नारि को नेह, बुरो मूरख सों हाँसो।
बुरी सूम की सेव, बुरो भगिनी-घर भाई।
बुरी कुलच्छनि नारि, सास-घर बुरो जमाई।
बुरो पेट पप्पाल है, बुरो जुद्ध तें भागनो।
गंग कहै अकबर सुनौ, सबतें बुरो है माँगनो।।

शब्दार्थ:-
इस संसार में कुछ नियमों को निभाना कठीन है जैसे हम किसी से प्रीति करते हैं यह आसान है मगर उसे निभाना बड़ा कठिन होता है जंगल दूर से अच्छा दिखता है मगर उसमें रहना पड़ जाए तो यह कठिन है पर स्त्री से नेह लगाना बहुत बुरा है एक बार भी फस गए कभी नहीं निकल पाएंगे मूर्ख व्यक्ति की हंसी बुरी होती है क्योंकि बे मतलब की बात अच्छी नहीं होती कंजूस व्यक्ति की सेवा करना कठिन है बहन के घर भाई बुरा है कुल्टा स्त्री कुल के लिए बहुत बुरी होती है घर जमाई की ससुराल में कोई कदर नहीं होती अगर आप अपना काम कर रहे हो ससुराल में हो उसे घर जमाई नहीं कहते घर जमाई का अर्थ ससुर की रोटियों पर पलना है इस संसार में पेट की भुख कभी नहीं मिटती है नहीं उसकी पूर्ति में सारा जीवन लगा लेते हैं बहुत कठिन है युद्ध क्षेत्र से भागना भागने वाले की मृत्यु से ही भी भयानक स्थिति हो जाती है और इस संसार में मांगना सबसे बुरी चीज है मांगन मरण समान है। कवि गंग के दोहे

अकबर-निंदा (सवैया)

एक को छोड़ि बिजा को भजै, रसना सु कटौ उस लब्बर की।
अब तौ गुनिया दुनिया को भजै, सिर बाँधत पोट अटब्बर की।
कबि गंग तौ एक गोबिंद भजै, कछु संक न मानत जब्बर की।
जिनकों हरि की परतीति नहीं सो करौ मिलि आस अकब्बर की।। कवि गंग के दोहे

शादर्थ:-
इस छंद के माध्यम से कवि हमें जीवन का सार समझाते हुए कहना चाहते हैं कि उसे एक पूर्ण परमात्मा सबका मालिक सर्वशक्तिमान परमपिता को छोड़कर किसी और पर भरोसा रखता है किसी अन्यत्र पर आश्रित रहता है प्रभु को भूल कर किसी और के गुणगान करता है ऐसे व्यक्ति की जीव्या क्यों नहीं कट जाती उस लब्बार की जो गुणवान होते हुए भी इस संसार के झूठे मालिकों का गुणगान करते हैं वह तो अपने लिए पाप की गठरी लाद रहे हैं मैं कवि गंग तो एक परमात्मा को भजता हूं और उस पर ही आश्रित रहता हूं उसके अलावा मेरा कोई स्वामी नहीं है हां जिनको उस परमपिता परमात्मा के ऊपर विश्वास नहीं है वह इस संसार रूपी अकबर पर निर्भर रहेंगे इसकी आशा करेंगे

उपरोक्त रचना की अंतिम पंक्ति अकबर को अपमानजनक लगी इसलिए अकबर ने कवि गंग को उसका साफ अर्थ बताने के लिए कहा। कवि गंग इतने स्वाभिमानी थे कि उन्होंने अकबर को यह जवाब दियाः

एक हाथ घोडा एक हाथ खर
कहना था सो कह दिया करना है सो कर।।

कवि गंग अत्यन्त स्वाभिमानी थे। उनकी स्पष्टवादिता के कारण ही उन्हें हाथी से कुचलवा दिया गया था। अपनी मृत्यु के पूर्व कवि गंग ने कहा थाः

कभी ना भड़वा रण चढ़े कभी न बाजी बंब।

सकल सभा प्रणाम करी विदा होत कवि गंग।। कवि गंग के दोहे

 

भूख (सवैया)

भूख में राज को तेज सबै घटै भूख में सिद्ध की बुद्धिहु हारी।
भूख में कामिनी काम तजै अरु, भूख में तज्जत पूरुष नारी।
भूख में कोऊ रहै व्यवहार न भूख में कन्या रहत्त कुमारी।
भूख में गंग बनै न भजन्नहु चारहु बेद तें भूख है न्यारी॥

सूँघन बास को नाक दई, अरु आँख दई जग जोवन कों।
दान के काज दिये दोऊ हाथ, सो पाँउ दिये पृथी घूमन कों।
कान दिये सुनिबे कों पुरान, सु जीभ दई भज मोहन कों।
गंग कहै सब नीको दियो, पर पेट दियो पत खोवन कों॥

सुख-सामग्री (दोहा)

पान पुराना घी नया, अरु कुलवंती नारि।
चौथी पीठि तुरंग की, स्वर्ग निसानी चारि॥

 

दान में टाँच मारना (सवैया)

गंग कहे सुन लीजो गुनी अरे मंगन बीच परो मती कोई।
बीच परो तो रहो चुप हवे करी आखिर इज्जत जात है खोई।
बली के बामन के दरमियान में आन भई जो भई गति जोई।
लेत है कोई ओ देत है कोईपे शुक्र ने आंख अनाहक खोई।।

कृपण (सवैया)

धूर परै उनके धन पै जिनको धन पुन्न के काम न आवै।
धूर परै उनके तप पै जिनके तप तें अघ दूर न जावै।
काह कहूँ उन भूपन तें जिनको अरि पैर की धूर न खावै।
धाम ढहौ तिनके कहि गंग जिके घर मंगन मानन पावै।।

 

दानी और सूम (सवैया)

जौहिरी लोग जवाहिर जाँचक दानी औ सूम की कीरति गावै।
तौन के भौन को स्वाल कहा, जिनि हाल के देखे हवाल बतावै।
गंग भनै कुलधर्म छिपै नहिं चाम की टूकरी काम न आवै।
स्यारथरी में खुरी पुंछ कंथरे सिंहथरी मुकता-गज पावै॥

 

कुटेव का न जाना (सवैया)

लैहसुन गाँठ कपूर के नीर में, बार पचासक धोइ मँगाई।
केसर के पुट दै दै कै फेरि, सु चंदन बृच्छ की छाँह सुखाई।
मोगरे माहिं लपेटि धरी गंग, बास सुबास न आव न आई।
ऐसेहि नीच कों ऊँच की संगति, कोटि करौ पै कुटेव व जाई।।

शब्दार्थ:-
कवि इस छंद में लहसुन के माध्यम से यह कहना चाह रहे हैं कि लहसुन को देखिए वह अपना स्वाभाविक गुण नहीं छोड़ता चाहे कपूर के पानी में रख दो 50 बार धो लो केसर के लेप लगा लो चाहे चंदन के वृक्ष की छाया में सुखाने के लिए रख दो चाहे मोगरे के पुष्पों की टोकरी में रख दो फिर भी उसमें किसी की भी सुगंध नहीं आयेगी सिर्फ उनके अपने निजी गुण के अलावा ऐसे ही दुष्ट प्रवृत्ति के व्यक्ति चाहे कितनी भी ऊंची संगति में रह ले लेकिन वह अपने स्वभाव को कुछ भी हो जाए नहीं त्यागता दुष्ट व्यक्ति अपने दुर्गुण के प्रति दृढ़ संकल्प वाला होता है। कवि गंग के दोहे

दूर रहना (सवैया)

बाल सों ख्याल, बड़े सों बिरोध, अगोचर नारि सों ना हँसिये।
अन्न सों लाज, अगिन्न सों जोर अजानत नीर में ना धंसिये।
बैल को नाथ, घोड़े को लगाम, मतंग कों अंकुस में कसिये।
गंग कहै सुनि साह अकब्बर, कूर तें दूर सदा बसिये।।

 

दाख बड़ो फल है सुखदायक, काग भखै तौ महा दुख पावै।
मिस्त्र अमोल, बहोत मिठास मै, जौ खर खावै तौ प्रान नसावै।
सीत बिना फल खाइ छुहारे तौ, ताते तुरंग को तेज नसावै।
गंग कहै सुनि साह अकब्बर, सीख कुमानुष कों नहिं भावै।।

रैन भए दिन तेज छिपै अरु सूर्य छिपै अति-पर्व के छाए।
देखत सिंह छिपै गजराज, सो चंद छिपै है अमावस आए।
पाप छिपै हरिनाम जपे, कुलकानि छिपै है कपूत के जाए।
गंग कहै सुनि साह अकब्बर कर्म छिपै न भभूत लगाए।।

 

तारा की ज्योति में चंद छिपे नहीं सूरज छिपे नही घन बादर छाया।
चंचल नारी के नैन छिपे नहीं प्रीत छिपे नहीं पीठ दिखाया।
रण चड्यो रजपूत छिपे नहीं दातार छिपे नहीं घर मांगन आया।
कहे कवि गंग सुनी शाह अकबर कर्म छिपे नहीं भभूत लगाया।।

 

जट का जानहिं भट्ट को भेद कुंभार का जानहिं भेद जगा को।
मूढ़ का जानहिं गूढ़ कै बातन भील का जानहिं पाप लगा को।
प्रीति की रीति अतीत का जानहिं, भैस का जानहिं खेत सगा को।
गंग कहै सुनी साह अकबर गिद्ध का जानहिं नीर गंगा को।।

अवसर पर परख (सवैया)

नीति चले तो महीपति जानिये भोर में जानिये शील धिया को।
काम परै तब चाकर जानिये ठाकुर जानिये चूक किया को।
पात्र तो बातन माहिं पिछानिये नैन में जानिये नेह तिया को।
गंग कहै सुनि साह अकबर हाथ में जानिये हेत हिया को।।

नकार-महत्व(दोहा)

न न अच्छर सब सों निरस सुनि उपजत अनहेत।
कामिनि के मुख कबि गंग पल पल शोभा देत।।

 

पावक को जल बूंद निवारण सूरज ताप को छत्र कियों है।
व्याधि को वैध तुरंग को चाबुक चौपग को वृख दंड दियो है।
हस्ती महामद को कीये अंकुश भूत पिचास को मंत्र कीयो है।

 
औखद है सबको सुखकारी स्वभाव को औखद नाही कियो है।।

चंचल नारी की प्रीत न कीजिये प्रीत किए दुख होत है भारी।
काल परे कछु आन बने कब नारी की प्रीत है प्रेम कटारी।
लोहे को घाव दवा सो मिटे पर चित को घाव ने जाई विसारी।

गंग कहे सुनी शाह अकबर नारी की प्रीत अंगार ते छारी।। 
हंस तो चाहत मानसरोवर मानसरोवर है रंग राता।
निर की बूंद पपीहा चाहत चंद्र चकोर के नेह का नाता।
प्रीतम प्रीत लगाई चले कवि गंग कहे जग जीवन दाता।
मेरे तो चित में मित बसे अरु मित्र के चित्र की जाने विधाता।।

प्रीत करो नित जान सुजान सो और हैवान सो प्रीति कहां।
छह मास सुवा तरु सेमल सेह्यों सु देश तज्यो परदेश रहा।
फल टूटी पड़ा पंछी राज उड़े जब चोच दई तो कपास लहा।
कवि गंग कहे सुनी शाह अकबर छाछ मिली यह दूध महान।।

गंग तरंग प्रवाह चले तहँ कूप को नीर पियो न पियो।
आनि ह्रदय आदि राम बसे तब और को नाम लियो न लियो।
कर्म संजोग सुपात्र मिले तो कुपात्र को दान दियो न दियो।
जिन मात पिता गुरू सेवा करि तिन तीर्थ व्रत कियो न कियो।
जिन सेवा टहल करि संतन की तिन योग ध्यान कियो न कियो।
कहे कवि गंग सुनि शाह अकबर मूर्ख को मित्र कियो न कियो।।

मेटि के चैन करे दिन रैन ज्यौ चाकरियो न सदा सुखकारी।
ताकौ न चेत धरे गुन सौ भए नेकु सो दोष निकारत गारी।
ले है कहा हम छाड़ि महाप्रभु हैं जु महा रिझवार बिहारी।
राज को संग कहै कवि गंग सुसिंघ को संग भुजंग की यारी।।

 

ज्ञान बड़े गुणवान की संगत ध्यान बड़े तपसी संग किन्हा।
मोह बढ़े परिवार की संगत काम बढे तिरिया संग किन्हा।
क्रोध बढे नर मूढ़ की संगत लोभ बढे धन में चित् दिन्हा।
बुद्धि विवेक विचार बढे कवि गंग कहे सजन संग किन्हा।

वृन्दावन की गैल में, मुक्ति पड़ी विलखाय ।
मुक्ति कहै गोपाल सों, मेरी मुक्ति बताय ॥ [1]
पड़ी रहो या गैल में, साधु संत चलि जाँय ।
उड़-उड़ रज मस्तक लगै, मुक्ति मुक्त ह्वै जाय ॥ [2]

श्री वृन्दावन को वास भलो,
जहाँ पास बहे यमुना पटरानी।
जो जन नहाय के ध्यान धरें,
बैकुण्ठ मिले तिनको रजधानी।।
चारहुँ वेद बखान करें,
संतमुनि अरु ज्ञानी ध्यानी।
यमुना यमदूतन टारत है,
भव तारत हैं श्री राधिका रानी॥

"बली जाऊं सदा इन नैनन पे, बलिहारी छटा पे होता रहूँ।
भूलूँ ना नाम तुम्हारा प्रभु, चाहे जाग्रत स्वप्न में सोता रहूँ। ” 

राधा राधा रटत ही, बाधा हटत हज़ार ।
सिद्धि सकल लै प्रेमघन, पहुँचत नंदकुमार ॥

श्रीवृन्दावन वास दीजिये
आस यहै वृषभानदुलारी । [1]
बंशीवट तट नटनागर संग
करत केलि अवलोकौं प्यारी ॥ [2]
ललितकिशोरी हूक उठत ही
फूंकि वंसुरिया की दइ मारी । [3]
दरसन बिन चित विकल रहत अति
राधा हरौ यह वाधा हमारी ॥ [4]
- ललित किशोरी जी, अभिलाष माधुरी, विनय (4)

दीनदयाल कहाय के धायकें क्यों दीननसौं नेह बढ़ायौ ।
त्यौं हरिचंद जू बेदन में करुणा निधि नाम कहो क्यौं गायौ ॥ [1]
एती रुखाई न चाहियै तापै कृपा करिके जेहि को अपनायौ ।
ऐसौ ही जोपै सूभाव रह्यौं तौ गरीब निबाज क्यौं नाम धरायौ ॥ [2]
- श्री भारतेंदु हरिशचंद्र, भारतेंदु ग्रंथावली

जहाँ राधा राधा गावें। तहां सुनवे कों हम धावें॥ [1]
जहाँ राधा चरचा कीजे। तहाँ प्रथम जान मोहि लीजे॥ [2]
श्रीराधा मेरी संपति। श्री राधा मेरी दंपति॥ [3]
सुंदर वृषभान दुलारी। मेरे हिय ते होत न न्यारी॥ [4]
- ब्रज के सवैया  

काया शुद्ध होत जब ब्रज रज उड़ि अंग लगे।
माया शुद्ध होत कृष्ण सेवा पे लुटाये ते।।
शुद्ध होत कान कथा कीर्तन के श्रवण किये।
नैंन शुद्ध होत दर्श युगल छवि पाये ते।।
हाथ शुद्ध होत श्री ठाकुर की सेवा किये।
पावं शुद्ध होत श्री वृन्दावन जाये ते।।
मस्तक शुद्ध होत श्री बिहारी जी के चरण परे।
रसना शुद्ध होत श्यामा-श्याम गुण गाये ते।।
 
जिसे एक बार जीवन में प्रभु का प्यार मिलता है,,
उसे बस आँसुओं के हार का उपहार मिलता है,,,
न पूछो उस दिल की बेकली का हाल मत पूछो,,
न तन से प्राण जाते है न प्राणाधार मिलता है,,,
भला किसको दिखाए मर्ज की बढती हुई मंजिल,,
न कोई वैद्य मिलता है न कुछ उपचार मिलता है,,,
और दूर रहने पर भी न जाने क्या क्या बात होती है,,
ह्रदय के तार से जब उस ह्रदय का तार मिलता है,,,
और जहाँ कुछ छलछलाता अश्रुजल दिखलाई देता है,,
उसी मानस में हमें वह साँवला सरकार मिलता है,,,
 
“मोहन ! नैना आपके नौका के आकार..
 जो जन इनमें बस गये हो गये भव से पार “
खुसरो दरिया प्रेम का उलटी वा की धार।
जो उभरा सो डूब गया जो डूबा सो पार।।
आ पिया इन नैनन में जो पलक ढांप तोहे लूँ
न मैं देखूँ गैर को न तोहे देखन दूँ
श्याम सुंदर मन मोहन,तूने मारा नयन नजारा है
बिकल हुआ मेरा दिल,दिलवर बिखरा पारा-पारा  है  
किससे कहें ओर कौन सुने, कसके हिये जख्म करारा  है 
सरस  माधुरी दर्शन देना, मरहम यही हमारा है  
 काजर डारूँ किरकिरा जो सुरमा दिया न जाये
जिन नैनन में पी बसे तो दूजा कौन समाये
 
कजरारी तेरी आँखों में, क्या भरा हुआ, कुछ टोना है 
तेरा कुह्सन औरो का मरण, बस जान से हाथ धोना है
 हाथीके दांत के खिलौना बने भाँती भाँती, बाघन की खाल तपस्वी मन भाई है l
 सामर की खाल को बाँधत है सिपाही लोग, गैड़ा की खाल राजा के मन भाई है l
 मृगन की खाल को ओढ़ते जती सती, बकरे की खाल ते या ढोलक बनाई हैl 
 कहे कवि दयाराम के भजन बिना, मानस की देह कछु काम नही आयी है l
 
मेरी भव बाधा हरो, राधा नागर सोए l
जा तन की झाई परै, श्याम हरित दुति होय ll 
ब्रज रज की महिमा अमर, ब्रज रस की है खान,
ब्रज रज माथे पर चढ़े, ब्रज है स्वर्ग समान।
 
भोली-भाली राधिका, भोले कृष्ण कुमार,
कुंज गलिन खेलत फिरें, ब्रज रज चरण पखार।
 
ब्रज की रज चंदन बनी, माटी बनी अबीर,
कृष्ण प्रेम रंग घोल के, लिपटे सब ब्रज वीर।
 
ब्रज की रज भक्ति बनी, ब्रज है कान्हा रूप,
कण-कण में माधव बसे, कृष्ण समान स्वरूप।
राधा ऐसी बावरी, कृष्ण चरण की आस,
छलिया मन ही ले गयो, अब किस पर विश्वास।
 
ब्रज की रज मखमल बनी, कृष्ण भक्ति का राग,
गिरिराज की परिक्रमा, कृष्ण चरण अनुराग।
 
वंशीवट यमुना बहे, राधा संग ब्रजधाम,
कृष्ण नाम की लहरियां, निकले आठों याम।
 
गोकुल की गलियां भलीं, कृष्ण चरणों की थाप,
अपने माथे पर लगा, धन्य भाग भईं आप।
 
ब्रज की रज माथे लगा, रटे कन्हाई नाम,
जब शरीर प्राणन तजे मिले, कृष्ण का धाम।

TUM NA SUNOGE TO KON -तुम ना सुनोगे कौन सुनेगा

साथी हमारा कौन बनेगा,तुम न सुनोगे कौन सुनेगा

आ गया दर पे तेरे, सुनाई हो जाये
जिंदगी से दुखो की, विदाई हो जाये
एक नजर कृपा की डालो,मानुगा अहसान ॥
संकट हमारा कैसे टलेगा
तुम ना सुनोगे कौन सुनेगा.......

पानी हे सर से ऊपर,मुसीबत अड़ गयी हे,
आज हमको तुम्हारी,जरुरत पद गयी हे
अपने हाथ से हाथ पकड़लो,मानुगा अहसान ॥
साथ हमारे कौन चलेगा
तुम ना सुनोगे कौन सुनेगा........

तुम्हारे दर पे शायद,हमेशा धर्मी आते,
आज पापी आया हे,श्याम काहे घबराते
हमने सुना हे तेरी नजर में,सब  एक समान ॥
इसका पता तो आज चलेगा
तुम ना सुनोगे कौन सुनेगा........

वो तेरे भकत होंगे,जिन्हे हे तुमने तारा,
बता ए मुरलीवाले,कौन सा तीर मारा
भकत तुम्हारे भक्ति करते,लेते रहते नाम ॥
काम ती उनका करना पड़ेगा
तुम ना सुनोगे कौन सुनेगा............

पाप की गठड़ी सर पर,लाढ कर में लाया
बोझ कुछ हल्का कर दे,उठाने ना पाया
फर्ज की रह बता संजू,हो जाये कल्याण ॥
इसमें तुम्हारा कुछ ना घटेगा
तुम ना सुनोगे कौन सुनेगा.........

मेरे सिर पे सदा तेरा हाथ रहे  मेरा साँवरा  हमेशा मेरे साथ रहे