ऋणग्रस्तता (सवैया)
नटवा लौं नटै न टरै पुनि मोदी, सु डाँडिन में बहु भाव भरै।
सजि गाजै बजाज अवाज मृदंग लौं, बाँकियै तान गिनौरी लरै।
पट धोबी धरै, अरु नाई नरै, सु तमोलिन बोलिन बोल धरै।
कबि गंग के अंगन मंगनहार, दिना दस तें नित नृत्य करै।।
कानी आँख (सवैया)
मेरी कानी आँखि कछु पाप तें न फूटि गई, अपने जन की पीर कौने नहिं मानी है।
कोई लेइ कोई देइ आप कछु काम नाहि, साँची के कहे में कछु आवति ही हानी है।
क्यों रे पानी कृस्न सब बलि को लयो तें लूटि, मेरी फोड़ी आँखि करी पाप की निसानी है।
कहै कबि गंग यहै सुक्र ने जवाब दयो मेरी आँखि कानी वाकी आनी जग मानी है।।
गरज (सवैया)
गर्ज ते अर्जुन क्लीब भए, अरु गर्ज तें गोबिंद धेनु चरावै।
गर्ज तें द्रौपदी दासी भई, अरु गर्ज तें भीम रसोई पकावै।
गर्ज बडी त्रय लोकन में, अरु गर्ज बिना कोइ आवै न जावै।
गंग कहै सुनि साह अकब्बर, गर्जतें बीबी गुलाम रिझावै।।
रति (सवैया)
रती बिन राज, रती बिन पाट, रती बिन छत्र नहीं इक टीको।
रती बिन साधु रती बिन संत, रती बिन जोग न होय जती को।
रती बिन मात रती बिन तात, रती बिन मानस लागत फीको।
गंग कहै सुनि साह अकब्बर, एक रती बिन एक रती को॥
रुपया (सवैया)
मात कहै मेरो पूत सपूत है, भैन कहै मेरो सुंदर भैया।
तात कहै मेरो है कुलदीपक, लोक में लाज रु धीरबँधैया।
नारि कहै मेरो प्रानपती अरु जीवन जान की लेउँ बलैया।
गंग कहै सुनि साहि अकब्बर, सोई बड़ो जिन गाँठ रुपैया।।
शब्दार्थ:-
इस छंद के माध्यम से कवि गंग हमें इस संसार की वास्तविकता हमारे सामने रख
रहे हैं कि आपका अपना यहां कोई नहीं है माता भी आपको सपुत्र कह रही है बहन
भी आपको सुंदर बता रही है पिता आपको अपने कुल का चिराग अपनी वंशवेल कह रहे
हैं और पत्नी कह रही है कि मेरे पति मेरे प्राणप्रिय मेरे भगवान है मैं
इनकी बलैया लेती हूं इतना कुछ होने के बाद भी कवि गंग हमें यह कह रहे हैं
कि आपके पास पद पैसा और प्रलोभन है तो आपको सब यही कहेंगे जब इनमें से एक
भी उपाधि आपके पास नहीं है तो यह सब आपको इसके विपरीत बताएंगे यह सिर्फ
नियम है वास्तव में आपका अपना तो वह परमपिता परमात्मा है जो इस आत्मा का
जनक है जिसे हम:-
त्वमेव माता च पिता त्वमेव त्वमेव बंधु च सखा त्वमेव।
त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव त्वमेव सर्वं मम देव देव।। कवि गंग के दोहे
बुराई (छप्पय)
बुरो प्रीति को पंथ, बुरो जंगल को बासो ।
बुरो नारि को नेह, बुरो मूरख सों हाँसो।
बुरी सूम की सेव, बुरो भगिनी-घर भाई।
बुरी कुलच्छनि नारि, सास-घर बुरो जमाई।
बुरो पेट पप्पाल है, बुरो जुद्ध तें भागनो।
गंग कहै अकबर सुनौ, सबतें बुरो है माँगनो।।
शब्दार्थ:-
इस संसार में कुछ नियमों को निभाना कठीन है जैसे हम किसी से प्रीति करते
हैं यह आसान है मगर उसे निभाना बड़ा कठिन होता है जंगल दूर से अच्छा दिखता
है मगर उसमें रहना पड़ जाए तो यह कठिन है पर स्त्री से नेह लगाना बहुत बुरा
है एक बार भी फस गए कभी नहीं निकल पाएंगे मूर्ख व्यक्ति की हंसी बुरी होती
है क्योंकि बे मतलब की बात अच्छी नहीं होती कंजूस व्यक्ति की सेवा करना
कठिन है बहन के घर भाई बुरा है कुल्टा स्त्री कुल के लिए बहुत बुरी होती है
घर जमाई की ससुराल में कोई कदर नहीं होती अगर आप अपना काम कर रहे हो
ससुराल में हो उसे घर जमाई नहीं कहते घर जमाई का अर्थ ससुर की रोटियों पर
पलना है इस संसार में पेट की भुख कभी नहीं मिटती है नहीं उसकी पूर्ति में
सारा जीवन लगा लेते हैं बहुत कठिन है युद्ध क्षेत्र से भागना भागने वाले की
मृत्यु से ही भी भयानक स्थिति हो जाती है और इस संसार में मांगना सबसे
बुरी चीज है मांगन मरण समान है। कवि गंग के दोहे
अकबर-निंदा (सवैया)
एक को छोड़ि बिजा को भजै, रसना सु कटौ उस लब्बर की।
अब तौ गुनिया दुनिया को भजै, सिर बाँधत पोट अटब्बर की।
कबि गंग तौ एक गोबिंद भजै, कछु संक न मानत जब्बर की।
जिनकों हरि की परतीति नहीं सो करौ मिलि आस अकब्बर की।। कवि गंग के दोहे
शादर्थ:-
इस छंद के माध्यम से कवि हमें जीवन का सार समझाते हुए कहना चाहते हैं कि
उसे एक पूर्ण परमात्मा सबका मालिक सर्वशक्तिमान परमपिता को छोड़कर किसी और
पर भरोसा रखता है किसी अन्यत्र पर आश्रित रहता है प्रभु को भूल कर किसी और
के गुणगान करता है ऐसे व्यक्ति की जीव्या क्यों नहीं कट जाती उस लब्बार की
जो गुणवान होते हुए भी इस संसार के झूठे मालिकों का गुणगान करते हैं वह तो
अपने लिए पाप की गठरी लाद रहे हैं मैं कवि गंग तो एक परमात्मा को भजता हूं
और उस पर ही आश्रित रहता हूं उसके अलावा मेरा कोई स्वामी नहीं है हां जिनको
उस परमपिता परमात्मा के ऊपर विश्वास नहीं है वह इस संसार रूपी अकबर पर
निर्भर रहेंगे इसकी आशा करेंगे
उपरोक्त रचना की अंतिम पंक्ति अकबर को अपमानजनक लगी इसलिए अकबर ने कवि गंग को उसका साफ अर्थ बताने के लिए कहा। कवि गंग इतने स्वाभिमानी थे कि उन्होंने अकबर को यह जवाब दियाः
एक हाथ घोडा एक हाथ खर
कहना था सो कह दिया करना है सो कर।।
कवि गंग अत्यन्त स्वाभिमानी थे। उनकी स्पष्टवादिता के कारण ही उन्हें हाथी से कुचलवा दिया गया था। अपनी मृत्यु के पूर्व कवि गंग ने कहा थाः
कभी ना भड़वा रण चढ़े कभी न बाजी बंब।
सकल सभा प्रणाम करी विदा होत कवि गंग।। कवि गंग के दोहे
भूख (सवैया)
भूख में राज को तेज सबै घटै भूख में सिद्ध की बुद्धिहु हारी।
भूख में कामिनी काम तजै अरु, भूख में तज्जत पूरुष नारी।
भूख में कोऊ रहै व्यवहार न भूख में कन्या रहत्त कुमारी।
भूख में गंग बनै न भजन्नहु चारहु बेद तें भूख है न्यारी॥
सूँघन बास को नाक दई, अरु आँख दई जग जोवन कों।
दान के काज दिये दोऊ हाथ, सो पाँउ दिये पृथी घूमन कों।
कान दिये सुनिबे कों पुरान, सु जीभ दई भज मोहन कों।
गंग कहै सब नीको दियो, पर पेट दियो पत खोवन कों॥
सुख-सामग्री (दोहा)
पान पुराना घी नया, अरु कुलवंती नारि।
चौथी पीठि तुरंग की, स्वर्ग निसानी चारि॥
दान में टाँच मारना (सवैया)
गंग कहे सुन लीजो गुनी अरे मंगन बीच परो मती कोई।
बीच परो तो रहो चुप हवे करी आखिर इज्जत जात है खोई।
बली के बामन के दरमियान में आन भई जो भई गति जोई।
लेत है कोई ओ देत है कोईपे शुक्र ने आंख अनाहक खोई।।
कृपण (सवैया)
धूर परै उनके धन पै जिनको धन पुन्न के काम न आवै।
धूर परै उनके तप पै जिनके तप तें अघ दूर न जावै।
काह कहूँ उन भूपन तें जिनको अरि पैर की धूर न खावै।
धाम ढहौ तिनके कहि गंग जिके घर मंगन मानन पावै।।
दानी और सूम (सवैया)
जौहिरी लोग जवाहिर जाँचक दानी औ सूम की कीरति गावै।
तौन के भौन को स्वाल कहा, जिनि हाल के देखे हवाल बतावै।
गंग भनै कुलधर्म छिपै नहिं चाम की टूकरी काम न आवै।
स्यारथरी में खुरी पुंछ कंथरे सिंहथरी मुकता-गज पावै॥
कुटेव का न जाना (सवैया)
लैहसुन गाँठ कपूर के नीर में, बार पचासक धोइ मँगाई।
केसर के पुट दै दै कै फेरि, सु चंदन बृच्छ की छाँह सुखाई।
मोगरे माहिं लपेटि धरी गंग, बास सुबास न आव न आई।
ऐसेहि नीच कों ऊँच की संगति, कोटि करौ पै कुटेव व जाई।।
शब्दार्थ:-
कवि इस छंद में लहसुन के माध्यम से यह कहना चाह रहे हैं कि लहसुन को देखिए
वह अपना स्वाभाविक गुण नहीं छोड़ता चाहे कपूर के पानी में रख दो 50 बार धो
लो केसर के लेप लगा लो चाहे चंदन के वृक्ष की छाया में सुखाने के लिए रख दो
चाहे मोगरे के पुष्पों की टोकरी में रख दो फिर भी उसमें किसी की भी सुगंध
नहीं आयेगी सिर्फ उनके अपने निजी गुण के अलावा ऐसे ही दुष्ट प्रवृत्ति के
व्यक्ति चाहे कितनी भी ऊंची संगति में रह ले लेकिन वह अपने स्वभाव को कुछ
भी हो जाए नहीं त्यागता दुष्ट व्यक्ति अपने दुर्गुण के प्रति दृढ़ संकल्प
वाला होता है। कवि गंग के दोहे
दूर रहना (सवैया)
बाल सों ख्याल, बड़े सों बिरोध, अगोचर नारि सों ना हँसिये।
अन्न सों लाज, अगिन्न सों जोर अजानत नीर में ना धंसिये।
बैल को नाथ, घोड़े को लगाम, मतंग कों अंकुस में कसिये।
गंग कहै सुनि साह अकब्बर, कूर तें दूर सदा बसिये।।
दाख बड़ो फल है सुखदायक, काग भखै तौ महा दुख पावै।
मिस्त्र अमोल, बहोत मिठास मै, जौ खर खावै तौ प्रान नसावै।
सीत बिना फल खाइ छुहारे तौ, ताते तुरंग को तेज नसावै।
गंग कहै सुनि साह अकब्बर, सीख कुमानुष कों नहिं भावै।।
रैन भए दिन तेज छिपै अरु सूर्य छिपै अति-पर्व के छाए।
देखत सिंह छिपै गजराज, सो चंद छिपै है अमावस आए।
पाप छिपै हरिनाम जपे, कुलकानि छिपै है कपूत के जाए।
गंग कहै सुनि साह अकब्बर कर्म छिपै न भभूत लगाए।।
तारा की ज्योति में चंद छिपे नहीं सूरज छिपे नही घन बादर छाया।
चंचल नारी के नैन छिपे नहीं प्रीत छिपे नहीं पीठ दिखाया।
रण चड्यो रजपूत छिपे नहीं दातार छिपे नहीं घर मांगन आया।
कहे कवि गंग सुनी शाह अकबर कर्म छिपे नहीं भभूत लगाया।।
जट का जानहिं भट्ट को भेद कुंभार का जानहिं भेद जगा को।
मूढ़ का जानहिं गूढ़ कै बातन भील का जानहिं पाप लगा को।
प्रीति की रीति अतीत का जानहिं, भैस का जानहिं खेत सगा को।
गंग कहै सुनी साह अकबर गिद्ध का जानहिं नीर गंगा को।।
अवसर पर परख (सवैया)
नीति चले तो महीपति जानिये भोर में जानिये शील धिया को।
काम परै तब चाकर जानिये ठाकुर जानिये चूक किया को।
पात्र तो बातन माहिं पिछानिये नैन में जानिये नेह तिया को।
गंग कहै सुनि साह अकबर हाथ में जानिये हेत हिया को।।
नकार-महत्व(दोहा)
न न अच्छर सब सों निरस सुनि उपजत अनहेत।
कामिनि के मुख कबि गंग पल पल शोभा देत।।
पावक को जल बूंद निवारण सूरज ताप को छत्र कियों है।
व्याधि को वैध तुरंग को चाबुक चौपग को वृख दंड दियो है।
हस्ती महामद को कीये अंकुश भूत पिचास को मंत्र कीयो है।
औखद है सबको सुखकारी स्वभाव को औखद नाही कियो है।।
चंचल नारी की प्रीत न कीजिये प्रीत किए दुख होत है भारी।
काल परे कछु आन बने कब नारी की प्रीत है प्रेम कटारी।
लोहे को घाव दवा सो मिटे पर चित को घाव ने जाई विसारी।
हंस तो चाहत मानसरोवर मानसरोवर है रंग राता।
निर की बूंद पपीहा चाहत चंद्र चकोर के नेह का नाता।
प्रीतम प्रीत लगाई चले कवि गंग कहे जग जीवन दाता।
मेरे तो चित में मित बसे अरु मित्र के चित्र की जाने विधाता।।
प्रीत करो नित जान सुजान सो और हैवान सो प्रीति कहां।
छह मास सुवा तरु सेमल सेह्यों सु देश तज्यो परदेश रहा।
फल टूटी पड़ा पंछी राज उड़े जब चोच दई तो कपास लहा।
कवि गंग कहे सुनी शाह अकबर छाछ मिली यह दूध महान।।
गंग तरंग प्रवाह चले तहँ कूप को नीर पियो न पियो।
आनि ह्रदय आदि राम बसे तब और को नाम लियो न लियो।
कर्म संजोग सुपात्र मिले तो कुपात्र को दान दियो न दियो।
जिन मात पिता गुरू सेवा करि तिन तीर्थ व्रत कियो न कियो।
जिन सेवा टहल करि संतन की तिन योग ध्यान कियो न कियो।
कहे कवि गंग सुनि शाह अकबर मूर्ख को मित्र कियो न कियो।।
मेटि के चैन करे दिन रैन ज्यौ चाकरियो न सदा सुखकारी।
ताकौ न चेत धरे गुन सौ भए नेकु सो दोष निकारत गारी।
ले है कहा हम छाड़ि महाप्रभु हैं जु महा रिझवार बिहारी।
राज को संग कहै कवि गंग सुसिंघ को संग भुजंग की यारी।।
ज्ञान बड़े गुणवान की संगत ध्यान बड़े तपसी संग किन्हा।
मोह बढ़े परिवार की संगत काम बढे तिरिया संग किन्हा।
क्रोध बढे नर मूढ़ की संगत लोभ बढे धन में चित् दिन्हा।
बुद्धि विवेक विचार बढे कवि गंग कहे सजन संग किन्हा।
वृन्दावन की गैल में, मुक्ति पड़ी विलखाय ।
मुक्ति कहै गोपाल सों, मेरी मुक्ति बताय ॥ [1]
पड़ी रहो या गैल में, साधु संत चलि जाँय ।
उड़-उड़ रज मस्तक लगै, मुक्ति मुक्त ह्वै जाय ॥ [2]
श्री वृन्दावन को वास भलो,
जहाँ पास बहे यमुना पटरानी।
जो जन नहाय के ध्यान धरें,
बैकुण्ठ मिले तिनको रजधानी।।
चारहुँ वेद बखान करें,
संतमुनि अरु ज्ञानी ध्यानी।
यमुना यमदूतन टारत है,
भव तारत हैं श्री राधिका रानी॥
"बली जाऊं सदा इन नैनन पे, बलिहारी छटा पे होता रहूँ।
भूलूँ ना नाम तुम्हारा प्रभु, चाहे जाग्रत स्वप्न में सोता रहूँ। ”
राधा राधा रटत ही, बाधा हटत हज़ार ।
सिद्धि सकल लै प्रेमघन, पहुँचत नंदकुमार ॥
श्रीवृन्दावन वास दीजिये
आस यहै वृषभानदुलारी । [1]
बंशीवट तट नटनागर संग
करत केलि अवलोकौं प्यारी ॥ [2]
ललितकिशोरी हूक उठत ही
फूंकि वंसुरिया की दइ मारी । [3]
दरसन बिन चित विकल रहत अति
राधा हरौ यह वाधा हमारी ॥ [4]
- ललित किशोरी जी, अभिलाष माधुरी, विनय (4)
दीनदयाल कहाय के धायकें क्यों दीननसौं नेह बढ़ायौ ।
त्यौं हरिचंद जू बेदन में करुणा निधि नाम कहो क्यौं गायौ ॥ [1]
एती रुखाई न चाहियै तापै कृपा करिके जेहि को अपनायौ ।
ऐसौ ही जोपै सूभाव रह्यौं तौ गरीब निबाज क्यौं नाम धरायौ ॥ [2]
- श्री भारतेंदु हरिशचंद्र, भारतेंदु ग्रंथावली
जहाँ राधा राधा गावें। तहां सुनवे कों हम धावें॥ [1]
जहाँ राधा चरचा कीजे। तहाँ प्रथम जान मोहि लीजे॥ [2]
श्रीराधा मेरी संपति। श्री राधा मेरी दंपति॥ [3]
सुंदर वृषभान दुलारी। मेरे हिय ते होत न न्यारी॥ [4]
- ब्रज के सवैया
जो उभरा सो डूब गया जो डूबा सो पार।।
आ पिया इन नैनन में जो पलक ढांप तोहे लूँ न मैं देखूँ गैर को न तोहे देखन दूँ
श्याम सुंदर मन मोहन,तूने मारा नयन नजारा है
बिकल हुआ मेरा दिल,दिलवर बिखरा पारा-पारा है
किससे कहें ओर कौन सुने, कसके हिये जख्म करारा है
सरस माधुरी दर्शन देना, मरहम यही हमारा है
काजर डारूँ किरकिरा जो सुरमा दिया न जाये जिन नैनन में पी बसे तो दूजा कौन समाये
कजरारी तेरी आँखों में, क्या भरा हुआ, कुछ टोना है
तेरा कुह्सन औरो का मरण, बस जान से हाथ धोना है
हाथीके दांत के खिलौना बने भाँती भाँती, बाघन की खाल तपस्वी मन भाई है l
सामर की खाल को बाँधत है सिपाही लोग, गैड़ा की खाल राजा के मन भाई है l
मृगन की खाल को ओढ़ते जती सती, बकरे की खाल ते या ढोलक बनाई हैl
कहे कवि दयाराम के भजन बिना, मानस की देह कछु काम नही आयी है l
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