हम तेरे शहर में आये है- गज़ल
जब भी मिलते हैं तो कतरा के निकल जाते हैं
हम तो मौसम की तरह रोज़ बदल जाते हैं
हम अभी तक हैं गिरफ़्तार-ए-मुहब्बत यारो
ठोकरें खा के सुना था कि सम्भल जाते हैं
ये कभी अपनी जफ़ा पर न हुआ शर्मिन्दा
हम समझते रहे पत्थर भी पिघल जाते हैं
उम्र भर जिनकी वफ़ाओं पे भरोसा किये
वक़्त पड़ने पे वही लोग बदल जाते हैं
लाख दुश्मन ही सही मिलके तो देखो एक बार।
प्यार की आंच से ,पत्थर भी पिघल जाते है
बेहुनर शख्स से मिलकर, ये एहसास हुआ
खोटे सिक्के भी तो,बाज़ार में चल जाते हैं।।
ठोकरें खाके न सम्हला तो, ये तेरी क़िस्मत
लोग तो एक ही ठोकर में सम्हल जाते हैं।।
जब भी मिलते है तो कतरा के निकल जाते है
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